बी०म्यूज० के दौरान कुछ जब कोई नया राग सीखता था,तो प्रयास करता था कि उस राग पर कोई रचना लिखूँ।यह उसी का परिणाम है। राग शुद्ध कल्याण में बनायी इसकी धुन मुझे बहुत प्रिय है,रचना तो पसन्द है ही। अब आप को यह कैसी लगती है,ये देखना है.......
तुमसे कोई गिला नहीं है।
प्यार हमेशा मिला नहीं है।
कांटे भी खिलते हैं चमन में,
फ़ूल हमेशा खिला नहीं है।
जिसको मंज़िल मिल ही जाए,
ऐसा हर काफ़िला नहीं है।
सदियों से होता आया है,
ये पहला सिलसिला नहीं है।
अनचाही हर चीज मिली है,
जो चाहा वो मिला नहीं है।
देर से तुम इसको समझोगे,
जफ़ा, वफ़ा का सिला नहीं है।
जिस्म का नाजुक हिस्सा है दिल,
ये पत्थर का किला नहीं है।
ac
आप का ब्लॉग मैं पड़ा
ReplyDeleteअच्छा लगा
अच्छा लगा कलम का प्रेम
और प्रेम का कलम ........
महोदय , आप से निवेदन है कि अपनी अच्छी से अच्छी रचनाये ये मेरे ब्लॉग मंच पर दे |
इसपर मैं लिखने के लिए आप को स्वीकारत करता हूँ
आशा है कि आप अपने सबद मंच पर देंगे जैसी ब्लोगेर्स आप को अधिक से अधिक पसंद कर सकते है
आप का ईमेल होता तो मैं आप के देखने से पहले ही आप को उसका सदस्य bana देता
आप कि कवितायेँ अच्छी लगी और उनको पड़कर और भी अच्छा
नमस्कार
आपका छोटा भाई
अम्बरीष मिश्रा
जिस्म का नाजुक हिस्सा है दिल,
ReplyDeleteये पत्थर का किला नहीं है।.....
kaaphi achchhi lines...
dil khus ho gaya....
achchhi ghazal hai. aise hi likhte rahen.
ReplyDeletebahut hi pyaari ghazal hai ,,
ReplyDeletebadhaai,,,
चतुर्वेदी जी ,
ReplyDeleteजय हिंद
'खमोश' शब्द वहां पर बहर में है मीटर मात्रा के अन्दर
साहित्य हिन्दुस्तानी में वही रचनाएं छपती हैं जो नियमतः सही होती हैं .ग़ज़ल लिखना उतना आसन नहीं है जितना लोग समझते हैं जबकि हमारे यहाँ ग़ज़लों के पैनल में प्रकांड विद्वान हैं.
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ReplyDeleteप्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी ,
ReplyDeleteआपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा .
आपके बारे में पढ़कर मुझे भी अपने शिक्षक की याद आ गई जिसने मेरे नाम में तो नहीं मेरे पिताजी के नाम में गड़बड़ कर दी . पिताजी का नाम तो वेदपाल सिंह था ( जी वो अब इस duniya में नहीं हैं) मगर उन साहब ने bed pal singh कर दिया . अब जहां भी जाता हूँ सब यही कहते हैं कि bed क्यों ? खैर
ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद
अरे वाह, बहुत प्यारी गजल कही है आपने। बधाई।
ReplyDelete-----------
मॉं की गरिमा का सवाल है
प्रकाश का रहस्य खोजने वाला वैज्ञानिक
अच्छी ग़ज़ल है...
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तख़लीक़-ए-नज़र । चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें । तकनीक दृष्टा
achchi lagi ye ghazal. ummed hai is blog par aapki aawaaz bhi sunne ko milegi
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !
ReplyDeleteप्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी,
ReplyDeleteआपकी रचना से प्रेरित होके यह रचना रची कैसी लगी जरा गुनगुनाएं फिर बताएं.
हम दम कोई मिला नहीं
फिर भी कोई गिला नहीं
महक जाता गुलशन अपना
पर फूल कोई खिला नहीं
प्यार सिमट कर रह गया
पाया कहीं कोई सिला नहीं
कैसे निभाते बतलाएं जरा
खुदी से कोई हिला नहीं
प्रेम जी,
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है